कैसे मुहम्मद शफी बन गए महिंदर सिंह गिल बंटवारे ने छीन लिया था परिवार
कैसे मुहम्मद शफी बन गए महिंदर सिंह गिल बंटवारे ने छीन लिया था परिवार
Mahinder Singh Gill Story: महिंदर सिंह गिल की जिंदगी में जो दर्द और संघर्ष थे, वे अब एक नई कहानी गढ़ चुके हैं. प्रोफेसर दत्ता ने महसूस किया कि यह सिर्फ एक व्यक्तिगत कहानी नहीं है, बल्कि उन सभी परिवारों की कहानी है जिन्होंने विभाजन के बाद अपनों को खोया था.
चंडीगढ़. देश का जब बंटवारा होता है, तो सिर्फ जमीन के टुकड़े ही नहीं बांटे जाते, परिवार, माहौल और उससे भी बढ़कर मानवता भी बंटती हुई दिखती है. इसका दर्द सिर्फ वही समझ सकता है, जिसने इसे झेला है. साल 1947 में हुए भारत-पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर कई ऐसी कहानियां और दास्तान हैं, जिनके बारे में जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मानवीय त्रासदी की तस्वीरें सहज ही आंखों के सामने तैरने लगती हैं. कुछ ऐसा ही मामला पंजाब में सामने आया है. झुर्रियों में छुपे लबों ने जब दर्द बयां करना शुरू किया तो दिल-दिमाग सब कहीं शून्य में खो गया. इतनी तकलीफ, इतना दर्द सहकर कोई आम इंसान जिंदा नहीं रह सकता, लेकिन 87 साल के महिंदर सिंह गिल आज भी उस दंश को झेल रहे हैं.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की मॉडर्न इंडियन हिस्ट्री की प्रोफेसर नोनिका दत्ता जब पंजाब के सीमाई इलाकों में अपने फील्डवर्क पर निकलीं, तो उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वे एक ऐसा किस्सा करेंगी जो 77 सालों से दफन था. एक सामान्य इंटरव्यू के दौरान, उन्होंने एक परिवार की खोई हुई कहानी को ढूंढना शुरू किया, जो भारत से पाकिस्तान तक फैली हुई थी. यह कहानी अटारी-वाघा सीमा से कुछ मील दूर स्थित बंदाला गांव में शुरू हुई. यहां दत्ता की मुलाकात महिंदर सिंह गिल से हुई, जो 87 साल के सिख बुजुर्ग हैं.
कई मुलाकातों के दौरान, गिल ने 1947 में बंटवारे के दौरान हुई भयावहता के बारे में खुलकर बताया. उस वक्त 10 साल के रहे गिल विभाजन के उथल-पुथल के बीच अपने परिवार से बुरी तरह अलग हो गए थे. उनका परिवार, जो मुस्लिम था, ज़िरा तहसील के बुल्लोके गांव में रहता था. गिल, जिन्हें जन्म के समय मुहम्मद शफी नाम दिया गया था, ने उस खौफनाक दिन को विस्तार से याद किया, जब खूनखराबा और हिंसा ने क्षेत्र को तोड़कर रख दिया और वह अपने माता-पिता, चार भाइयों और बहन से बिछड़ गए.
दत्ता ने कहा, “उन्हें अपने परिवार के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. 77 साल बीत चुके थे, लेकिन उन्होंने सब कुछ ऐसे याद किया, जैसा कि कल की ही बात हो.” यह कहानी न केवल इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय को उजागर करती है, बल्कि विभाजन के दौरान हुए मानवीय संकट को भी सामने लाती है, जिसे भूलना आसान नहीं है. दत्ता ने दिप्रिंट को बताया, “गिल को कोई अंदाज़ा नहीं था कि उसके परिवार के साथ क्या हुआ. 77 साल बीत चुके थे, लेकिन उन्हें सब कुछ अच्छी तरह याद था.”
परिवारों का बिछड़ना: महिंदर सिंह गिल की कहानी
महिंदर गिल की कहानी, जो पंजाब के बुल्लोके गांव में एक मुस्लिम परिवार में पैदा हुए थे, विभाजन के समय के दुखद क्षणों की गवाही देती है. उनका परिवार तब के भारतीय पंजाब में स्थित था, जो जल्दी ही पाकिस्तान की नई सीमा के करीब आ गया. हालांकि सीमा का आधिकारिक निर्धारण बाद में हुआ, लेकिन क्षेत्र में पहले से ही अनिश्चितता और भय का माहौल था. फाजिल्का, जो रैडक्लिफ़ लाइन की बहस के बीच में फंसा हुआ था, शुरू में पाकिस्तान को दिया गया था, और इसी ने गिल के जीवन को आकार दिया. इस उथल-पुथल के बीच, घर छोड़कर भागने की कोशिश कर रहा गिल का परिवार हिंसक भीड़ की रहम पर था.
जैसे-जैसे हिंसा बढ़ी, गिल अपने पिता से अलग हो गए और भीड़ के हमलों से बचने के लिए गांव दर गांव भटकने को मजबूर हो गए. इसी डर और भ्रम के माहौल में, एक सिख व्यक्ति, मंगल सिंह ने गिल को अपने घर में जगह दी. मंगल सिंह का परिवार बंदाला गांव में रहता था, जो भारत-पाकिस्तान सीमा के निकट था. सिंह परिवार ने गिल को गोद ले लिया और उन्होंने एक सिख के रूप में बड़े होकर अपनी पुरानी जिंदगी से बहुत दूर एक नया जीवन जीना शुरू किया. महिंदर गिल की यह कहानी न केवल व्यक्तिगत पहचान और जीवित रहने की जद्दोजहद को दिखाती है, बल्कि विभाजन के दौरान लाखों परिवारों के बिखराव की भी कहानी है.
महिंदर गिल की कहानी में एक दिलचस्प मोड़ तब आया जब उनकी परिवार के फिर से मिलने की संभावनाएं लगभग सच होने को थीं. दो महीने बाद, एक पड़ोसी ने गिल के परिवार को बताया कि मंगल सिंह ने एक पत्र भेजा है, जिसमें कहा गया था कि वह गिल को गंदा सिंह सीमा पर लाएंगे, लेकिन जब वे वहां पहुंचे, तो एक अनजान मामले के कारण अराजकता फैल गई और दोनों तरफ से गोलियां चलाई गईं. खतरे को देखते हुए सिंह ने गिल को अपने साथ वापस ले लिया. गिल के भाइयों को याद है कि गिल ने उन्हें पीछे मुड़कर देखा, लेकिन किस्मत के लिखे को कोई नहीं मिटा सकता.
दिल्ली में अपने नोट्स का रिव्यू करते समय, नोनिका दत्ता ने ऑनलाइन बुल्लोके गांव की खोज करने का फैसला लिया. वह गांव की इस कहानी के बारे में और अधिक जानने की उम्मीद कर रही थीं. आश्चर्य की बात यह थी कि उन्होंने स्थानीय इतिहासकार अब्बास खान लशारी द्वारा संचालित एक यूट्यूब चैनल ‘सांझे वेले’ (एकता की उम्र) को देखा. इस चैनल पर बंटवारे के बाद जीवन जीने वाले बुजुर्ग व्यक्तियों के वीडियो थे.
जब दत्ता ने वीडियो को स्क्रॉल किया, तो वह एक स्पेशल वीडियो पर ठहर गईं, जिसमें एक खोए हुए परिवार के सदस्य का जिक्र था-एक भाई जो गायब हो गया था. ‘वीर दी उड़ीक’ (भाई का इंतजार) शीर्षक वाले इस वीडियो में बताया गया था कि कैसे दो भाई 70 साल से अधिक समय से लापता अपने भाई का इंतजार कर रहे थे. फिर क्या था. दत्ता की दिलचस्पी जाग गई. क्या यह वही परिवार था, जिसके बारे में गिल ने उसे बताया था? यह खोज न केवल व्यक्तिगत पहचान के लिए एक नया रास्ता खोलती है, बल्कि विभाजन की दुखद कहानियों को भी उजागर करती है.
दत्ता ने याद करते हुए कहा, “मैं इसे विश्वास नहीं कर पा रही थी. यह मेरे रिसर्च में एक जादुई पल था. मुझे अपनी मेज से उठकर एक पल के लिए दूर जाना पड़ा. यह सबकुछ बहुत अद्भुत लग रहा था. जब उन्होंने वीडियो को फिर से देखा, तो सभी नाम एकसाथ जुड़ने लगे. महिंदर गिल के पिता चिराग़ दीन थे, मां फातिमा, और भाई अल्ला बक्श और नियामत अली. उसकी बातों में एक गहराई थी, और यह जानकर दिल को सुकून मिला कि केवल दो भाई ही अब जीवित थे.
Tags: India pakistanFIRST PUBLISHED : October 20, 2024, 22:42 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed