Old-Gold Cities : दिल्ली कभी उठी-कभी गिरी पर इतिहास को दंग करती रही

हर शहर की अपनी कहानी होती है और अपनी जिंदगानी होती है, हर शहर का अपना एक चरित्र होता है, जो एक दिन में नहीं बनता बल्कि सैकड़ों सालों में वो गढ़ा जाता है. हर शहर आपको अलग तरह से महसूस कराता है. हरएक की अपनी खासियत होती है, अलग फितरत और इतिहास और संस्कृति होती है. हमारी इस साप्ताहिक सीरीज में इस दिल वालों की दिल्ली की कहानी

Old-Gold Cities : दिल्ली कभी उठी-कभी गिरी पर इतिहास को दंग करती रही
हाइलाइट्सदिल्ली में एक नहीं कई साम्राज्यों का उदय हुआ लेकिन कोई भी यहां मजबूती से नहीं टिक सकाजब तैमूर लंग आया तो दिल्ली को कई दिनों तक लूटता रहा और कत्लेआम मचाता रहा1911 में जब अंग्रेजों ने इसे अपनी राजधानी बनाया तो इसकी रंगत बदलने लगी दिल्ली की शान निराली है. ये देश के शासकों का शहर है. ऊंची और भव्य इमारतें. लकदम शो रूम. वाहनों से भरी सड़कें. निराली और रंगीन शामें. ये वही शहर जो पूरे देश का भाग्य तय करता है. अपनी ताकत पर इतराता है. लेकिन दिल्ली कामगारों का भी शहर है, रोज बड़े पैमाने से बड़े पैमाने पर लोग यहां रोजीरोटी की तलाश में आते हैं. ये फैलता हुआ शहर है-कहीं तरतीब से तो कहीं बेतरतीब. जब देश के दूसरे शहरों की खासियतें बताई जाती हैं तो कहा जाता है – दिल्ली दिल वालों की. वैसे हर शहर की अपनी फितरत और रवायतें होती हैं, सो इस शहर की भी. सुनने में अजीब लगे लेकिन इतिहास कहता है कि दिल्ली साम्राज्यों की समाधि है. यहां ना जाने कितने साम्राज्यों का उदय हुआ और वो इसी जमीं पर दफन भी हो गए. प्रतिहार, गहड़वाल, चौहान, गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोधी, सूरी, मुगल, अंग्रेज सब एक एक करके इस शहर के सामने से गुजर गए. इसीलिए ये शहर कहीं ना कहीं इन सबकी कहानियां भी कहता मिलता है. वैसे ये बात भी सही है कि अगर प्राचीन नगरों की बात हो तो दिल्ली इस मामले में देश के ही दूसरे शहरों से पीछे होगा. दिल्ली ने बेटे द्वारा बाप का खून देखा, खानदान के खानदान का नाश देखा, कत्लेआम झेला लेकिन एक आंसू कभी नहीं बहाया. आज दिल्ली पर इतिहास की इतनी परतें हैं कि जहां से खोलिएगा वहां से अलग अलग मंजर नजर आएंगे. आज के दिल्ली की नींव कभी तोमरों ने डाली थी. बदलते गए दिल्ली के स्वामी दिल्ली कन्नौज के अधिकार में थी. जब जब कन्नौज के मालिक बदल, दिल्ली के भी स्वामी बदलते गए. प्रतिहारों से उसे गहड़वालों ने और गहड़वालों से चौहानों ने छीना. ये चलता रहा. वैसे बता दूं कि दिल्ली की तख्त पर सैकड़ों साल पहले एक औरत भी बैठी. सुल्तान अल्तमश की बेटी रजिया. हालांकि तब के जमाने ने इसे गुस्ताखी ही माना. कहा जाता है कि एक जमाने में दिल्ली में खूब चोरी-डकैती होती थी और कोई भी शासक इसको खत्म नहीं करा पाता था, उसे पहली बार बलवन ने काबू किया. लेकिन वो भी मंगोलों ने अपनी रक्षा नहीं कर सका. जब अलाउद्दीन यहां की गद्दी पर बैठा तो उसने दिल्ली सल्तनत की सीमाएं दूर दूर तक फैला दीं. दिल्ली कभी साफ थी. यहां की हवाएं साफ थीं. पानी साफ था. आबोहवा भी बेहतर थी लेकिन तब दिल्ली में ना बहुमंजिला इमारतें थीं और ना धुंआ उड़ाते वाहनों की इस कदर हुजूम. दिल्ली अब पर्यावरण के मामले में बहुत बदल चुकी है. (न्यूज18 ग्राफिक) इसी शहर में जब तैमूर लंग आया तो इसे ना जाने कितने दिनों तक लूटता रहा और कत्लेआम मचाता रहा. तब दिल्ली बरबाद हो गई. मुगल जब भारत आए तो शुरू में दिल्ली उनको रास नहीं आई लेकिन जहांगीर, शाहजहां और फिर औरंगजेब दिल्ली से बैठकर हुकूमत करते रहे. शाहजहां ने दिल्ली को सुंदर इमारतों से भर दिया. हालांकि औरंगजेब के बाद दिल्ली फिर लड़खड़ाकर गिर पड़ी. फिर अंग्रेजों ने इसे राजधानी बनाया लेकिन दिल्ली फिर मुस्कुराई. 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली को राजधानी बनाने का फैसला किया. 1911 में दिल्ली देश की राजधानी बन गई. हालांकि उसके बाद दिल्ली बार बार आजादी की लड़ाई और आंदोलनों का गवाह बनी. एक दिन मजबूर होकर अंग्रेजों ने जब हिंदुस्तान को छोड़ा तो दिल्ली ने भारत के भाग्य को फिर लिखना शुरू किया. वैसे बंटवारे में दिल्ली की गलियां – सड़कें फिर लहुलुहान हुईं. तब वाकई ये शहर इतने चोटों से भरा हुआ था कि कराह रहा था. तो ये दिल्ली की कहानी है लेकिन दिल्ली अब बदला हुआ शहर है. खुद पर गुमान करता और आत्मविश्वास से भरा शहर, ऐसा शहर जहां सबकुछ है, सारी सुविधाएं और सारी चमकदमक. हर शहर की अपनी फितरत होती है कहा जाता है कि हर शहर की अपनी फितरत होती है. पहली नजर में किसी भी शहर में यही खास इमारतें औऱ उनकी फितरत किसी जादू सरीखा काम करती है. दुनिया के किसी भी शहर में घूम आइए-हर शहर कुछ नया औऱ अलग सा लगेगा. हर शहर का स्थापत्य, दरो-दीवार, रास्ते, भवन, रंगाई-पुताई एक अलग और खास सांचे ढलकर उसकी पहचान को खास कर देती हैं। अब दिल्ली को ही लीजिए। महाभारत कालीन इस शहर ने किसे नहीं लुभाया. आज दिल्ली स्थापत्य के लिहाज से जितनी समृद्ध लगती हो, उतने कम ही शहर होते हैं. दिल्ली में अब चमक है, रंगीनियां हैं, बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर है. आधुनिक इमारतें और लकदक बड़े ब्रांड्स वाले बाजार. मेट्रो ने इस शहर के वाशिंदों को राहत दी है तो यातायात का एक असरदार साधन भी. (न्यूज18 ग्राफिक्स) इस शहर की तस्वीर बनाने के लिए लाल किला, हुमायूँ का मक़बरा, इंडिया गेट, राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, साउथ ब्लाक, नार्थ ब्लाक, जंतर मंतर और क़ुतुब मीनार जैसे भव्य और ऐतिहासिक इमारतों की तस्वीर दिमाग में उभरती है. वैसे कहना चाहिए कि ब्रितानी वास्तुकारों की बनाई हुई इमारतें आज भी दिल्ली के चरित्र में खास रंग घोलती हैं. लुटियंस ने दिल्ली को खास रंग दिया 1911 में जब ब्रिटिश राज ने कलकत्ता से दिल्ली का रुख़ किया. उसे राजधानी बनाने की ठानी. तब दिल्ली में मुगलिया वास्तुकला हावी थी, वैसी ही शैली में इमारतें खड़ी थीं लेकिन ब्रितानी वास्तुकार एडविन लुटियंस को मुग़ल वास्तुकला कुछ ख़ास पसंद नहीं आई. उन्होंने दिल्ली को इसी मुगल स्थापत्य के बीच नया टच देना शुरू किया, लेकिन ख्याल रखा कि नई इमारतें तो खड़ी हों लेकिन शहर की आत्मा में पुरानी इमारतों और भवनशैली का रूतबा भी बरकरार रहे यानि स्थापत्य की शैलियां दिल्ली में आकार ले सकें. ब्रितानी शासक जब नई राजधानी बसाने दिल्ली आए तो सबसे पहले ये सोच विचार हुआ कि किस जगह को ब्रितानी प्रशासन का केंद्र बनाया जाए. अंग्रेजों को पहाड़ीनुमा रायसीना गांव पसंद आया. इस फैली हुई जगह को ब्रिटिश राज के तख़्त के लिए चुना गया. 12 मार्च, 1912 को टाउन प्लानिंग कमिटी बनाई गई, समें तीन अहम शख़्सों को शहर की योजना बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई. उनमें से एक थे एडविन लुटियंस, जो ब्रिटेन के एक जाने-माने वास्तुकार थे. उनके साथ एक और जानेमाने वास्तुकार इस कमिटी में थे, उनका नाम था हरबर्ट बेकर. रायसीना पहाड़ी पर खड़ा हुआ सत्ता केंद्र दोनों ने साथ मिलकर रायसीना की पहाड़ी और उसके आस-पास के इलाक़े को भारत में ब्रितानी सत्ता का केंद्र बनाया. उन्होंने तब जो इमारतें खड़ी कीं वो आज भी शान से खड़ी हैं. एक खास शाही टच का अहसास कराती हैं. खुला, विशालकाय और भव्य लगने वाला स्थापत्य. यहीं वायसराय हाउस बना, जिसे अब हम राष्ट्रपति भवन कहते हैं. इसके इर्द गिर्द दो विशाल सचिवालय यानि नार्थ ब्लाक और साउथ ब्लाक. वायसराय भवन के सामने प्रथम विश्वयुद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में इंडिया गेट. इन्हीं के बीच बनी हमारी संसद और दूसरी इमारतें. हालांकि अब यहीं हमारी नई शानदार संसद बन रही है, जो विशुद्ध तौर पर भारतीय वास्तुशैली की कहानी कहेगी. दिल्ली के दिल यानि कनॉट प्लेस का आज भी जवाब नहीं दिल्ली का दिल यानि कनॉट प्लेस को अंग्रेज वास्तुकार रॉबर्ट टॉर रसैल ने बनाया. कनॉट प्लेस की बनावट घोड़े की नाल की बनावट से मेल खाती है. इसके ढ़ांचे की प्रेरणा ब्रिटेन में स्थित रॉयल क्रीसेंट से ली गई थी. पिछले कुछ सालों में शहर में खड़े किए गए एक से एक शॉपिंग मॉल्स भी सीपी की कशिश उससे छीन नहीं पाएं हैं. वैसे कहना चाहिए दिल्ली के जितने भी बाजार हैं वो लुभाते हैं और सबकी अपनी खासियत और रवायतें हैं. वैसे खाने पीने से लेकर मसालों का जायजा लेना है तो खारी बावली की अदा ही निराली है. आजादी के बाद दिल्ली में नए जोश से काम हुआ 1947 में जब भारत ब्रितानी चंगुल से आज़ाद हुआ, तब भारतीय लोगों में एक देशभक्ति की लहर दौड़ रही थी. इस भावना से यहां के वास्तुकार भी अछूते नहीं रहे थे. कोई नहीं चाहता था कि भारत के भविष्य का चेहरा बीते हुए कल की याद दिलाए. वे चाहते थे कि आधुनिकता की लहर भारत की वास्तुकला को भी छुए. तभी तो आज़ादी के बाद हुए निर्माण कार्य में देशज तथा पश्चिमी शैली की मिश्रित छटा दिखाई देती है। सर्वोच्च न्यायालय भवन, कृषि भवन, विज्ञान भवन, उद्योग भवन और रेल भवन जैसे निर्माण कार्य इस बात का प्रमाण हैं. दिल्ली अब सुविधापूर्ण है और रफ्तार वाली भी हालांकि दिल्ली की वास्तुकला पिछले 75 सालों में खासी विविध हो चुकी है. आज़ादी के बाद बनाए गए बहाई मंदिर और अक्षरधाम मंदिर ऐसे ढांचे हैं जो विशुद्ध भारतीय वास्तुकारों द्वारा बनाए गए. भारतीय संस्कृति से पूरी तरह प्रभावित रहे. आजादी के बाद इस शहर में वो तमाम इंतजाम हुए कि ये शहर हर किसी को रास आए. आधुनिक अस्पतालों से लेकर शिक्षा संंस्थाएं अगर दिल्ली के विकास की कहानी कहते हैं तो मेट्रो इस शहर को नई जान देने लगी है, जिससे रोज लाखों लोग सवारी करते हैं. हालांकि बड़े शहर की कुछ दिक्कतें भी होती हैं, मसलन प्रदूषण से लेकर अनियोजित विकास भी, जिससे दिल्ली भी अलहदा नहीं. अब दिल्ली को फिर बढ़ती आबादी चेता रही है नब्बे के दशक में उदारीकरण का दौर आने से भारत की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ वास्तुशिल्प ने भी एक नया मोड़ लिया और शीशे से बनी गगनचुंबी इमारतों ने दिल्ली की कायापलट ही कर डाली. अब दिल्ली के बाहरी इलाके आमतौर पर हाईराइज अपार्टमेंट्स में बदल गए हैं. दिल्ली को काफी तेज गति का शहर माना जाता है. लेकिन अब दिल्ली को बढती आबादी के मद्देनजर अब सुनियोजित आवासीय योजना की भी जरूरत है. वैसे हुक्मरानों के इस शहर में सबकुछ जो आपको चाहिए. विदेशी ब्रांडों से लेकर फैशन की रंगीनियां और सियासी हलचलें भी. यहां बड़े बड़े मोहक सांस्कृतिक आय़ोजन होते हैं तो बड़े आंदोलन और सियासी रैलियों भी. दिल्ली दुनिया से कनेक्टेड है. हर दो मिनट में यहां से कोई फ्लाइट हवा में देश विदेश की ओर उडान भरती नजर आती है. वैसे लोग ये भी कहते हैं कि दिल्ली सपनों का शहर भी है. ये तरक्की देता है, आपको पालता है, खिलाता – पिलाता है लेकिन मोहभंग भी कराता है. दिल्ली एक अलग ही जगह है. अलग, असाधारण और अतुलनीय. ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी | Tags: Delhi, Delhi Capitals, Eco-Friendly CitiesFIRST PUBLISHED : July 15, 2022, 12:00 IST