कौन हैं वो यूपी के पूर्व सीएम जिनके नाम पर था स्टेडियम अब बदलने पर हुआ विवाद

Dr. Sampurnanand: डॉ. संपूर्णानंद स्पोर्ट्स सिगरा स्टेडियम का नाम बदलने को लेकर न केवल शहर में बल्कि प्रदेश में भी सियासत गरमा गई है. डॉ. संपूर्णानंद को दिसंबर 1954 में मुख्यमंत्री बनाया गया. वह 1960 तक मुख्यमंत्री पद पर रहे. नाम बदलने से नाराज राजनीतिक दलों ने सिगरा स्टेडियम के मुख्य गेट पर धरना देकर उसका नाम पूर्ववत डॉ. संपूर्णानंद के नाम पर करने की मांग की है.

कौन हैं वो यूपी के पूर्व सीएम जिनके नाम पर था स्टेडियम अब बदलने पर हुआ विवाद
Dr. Sampurnanand: वाराणसी में डॉ. संपूर्णानंद सिगरा स्पोर्ट्स स्टेडियम का नाम बदलकर वाराणसी स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स कर दिया गया है. इसे लेकर सियासत के साथ सोशल मीडिया पर माहौल गरम हो गया है. दरअसल पीएम नरेंद्र मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र में खेलप्रेमियों को नेशनल सेंटर ऑफ एक्सीलेंस स्टेडियम की सौगात दी. रविवार को पीएम मोदी ने इस स्टेडियम का लोकार्पण किया. इस पर 216.29 करोड़ की लागत आई है. स्टेडियम में इनडोर और आउटडोर दोनों सुविधाएं उपलब्ध हैं. इस स्टेडियम के बनने से 20 से अधिक खेलों के खिलाड़ियों को अपनी प्रतिभा को चमकाने का मौका मिलेगा.  लेकिन डॉ. संपूर्णानंद स्पोर्ट्स सिगरा स्टेडियम का नाम बदलने को लेकर न केवल शहर में बल्कि प्रदेश में भी सियासत गर्म हो गई है. नाम बदलने से नाराज राजनीतिक दलों ने सोमवार को सिगरा स्टेडियम के मुख्य गेट पर धरना देकर उसका नाम पूर्ववत डॉ. संपूर्णानंद के नाम पर करने की मांग की. यही नहीं, काशी की समस्त कायस्थ संस्थाओं ने भी विरोध जताया. उन्होंने महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के गेट नंबर एक से पदयात्रा निकालकर सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया. ये भी पढ़ें- कैसे रशियन हीरोइन बनी आंध्र के डिप्टी सीएम की तीसरी बीवी, कैसी है लव स्टोरी जानें कौन थे डॉ. संपूर्णानंद डॉ. संपूर्णानंद का जन्म एक जनवरी, 1890 को वाराणसी में एक कायस्थ परिवार में हुआ था. उनकी स्कूली पढ़ाई वाराणसी के क्वींस कॉलेज से हुई थी. उन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बीएससी और एलएलबी की पढ़ाई की. इसके बाद वह पढ़ाने लगे. लंदन मिशन हाई स्कूल से लेकर प्रेम महाविद्यालय, काशी विद्यापीठ और डूंगर कॉलेज में पढ़ाया. लेकिन उस समय देश का माहौल अलग था. सभी देशवासी अपने-अपने तरीके से आजादी के आंदोलन में योगदान दे रहे थे. डॉ. संपूर्णानंद का मन भी सरकारी नौकरी में नहीं लगा. उन्होंने नौकरी छोड़ दी और सक्रिय राजनीति में आ गए. उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया. उस समय वाराणसी उत्तर प्रदेश में राजनीति का गढ़ हुआ करता था. अधिकतर नेता छात्र आंदोलन से वाराणसी से ही निकले थे.  ये भी पढ़ें- Explainer: कैसे लद्दाख पर मंडरा रहा क्लाइमेट चेंज का खतरा, किस समस्या से जूझ रहा यह केंद्र शासित प्रदेश  बनारस साउथ से लड़ा चुनाव देश आजाद होने के बाद 1952 में पहले चुनाव हुए. उस समय लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हुए. डॉ. संपूर्णानंद ने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था. लेकिन उन्हें दक्षिण बनारस से विधानसभा चुनाव लड़ने को कहा गया. पहले यह सीट कमलापति त्रिपाठी को दी जा रही थी. डॉ. संपूर्णानंद चुनाव जीत गए और मंत्री बनाए गए. 1954 में प्रदेश की राजनीति में बड़ा बदलाव आया. मुख्यमंत्री गोविंदबल्लभ पंत को केंद्र में गृहमंत्री बनाया गया. उनके स्थान पर डॉ. संपूर्णानंद को दिसंबर 1954 में मुख्यमंत्री बनाया गया. अप्रैल 1957 में वह दोबारा मुख्यमंत्री बने. लेकिन डॉ. संपूर्णानंद ने सात दिसंबर 1960 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. उसके बाद उन्हें 1962 में राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया. अपना राज्यपाल का कार्यकाल खत्म होने के बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया.  ये भी पढ़ें- Explainer: चंद्रबाबू के बाद अब स्टालिन ने क्यों कहा कि ज्यादा बच्चे पैदा करें, किस बात की है आशंका? क्यों कह रहे ये बात कभी अपने लिए वोट मांगने नहीं जाते थे एक रिपोर्ट के अनुसार डॉ. संपूर्णानंद कभी अपने चुनाव क्षेत्र में अपने लिए वोट मांगने नहीं जाते थे. दरअसल वो अपने दौर में बहुत ऊंचे कद के नेता थे. उस तरह के नेता जिनको अपने काम, चाल, चरित्र और चिंतन पर पूरा भरोसा था. डॉ. संपूर्णानंद वाराणसी सिटी साउथ विधानसभा चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ते थे. उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी सीपीआई के नेता रुस्तम सैटिन होते थे. रुस्तम सैटिन डॉ. संपूर्णानंद को कभी चुनाव में हरा नहीं सके. मेडिकल कॉलेज को मिला उनका नाम डॉ. संपूर्णानंद जब राजस्थान के राज्यपाल थे तो उनकी वहां के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया से अच्छी मित्रता हो गई थी. यह रिश्ता बाद में भी कायम रहा. मोहनलाल सुखाड़िया ने जोधपुर मेडिकल कॉलेज का नाम संपूर्णानंद मेडिकल कॉलेज रखवाया था. किसी राज्यपाल के नाम पर संभवतः वह पहला मेडिकल कॉलेज था. साल 1967 में राज्यपाल पद से मुक्त होने के बाद डॉ. संपूर्णानंद वाराणसी आ गए. उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. मोहनलाल सुखाड़िया उन दिनों डॉ. संपूर्णानंद की आर्थिक मदद किया करते थे.  ये भी पढ़ें- वो 10 पारसी जिन्होंने भारत को आगे बढ़ाने में निभाया खास रोल शवयात्रा में उमड़ पड़ा था पूरा शहर डॉ. संपूर्णानंद का निधन 10 जनवरी 1969 को हुआ. वाराणसी में उनकी शवयात्रा में इतने अधिक लोग उमड़ पड़े थे कि सड़कों पर तिल रखने की जगह नहीं थी. उनकी अर्थी को जनसमूह के ऊपर-ऊपर से किसी तरह खिसकाते हुए घाट तक पहुंचाया जा सका था. यह उनकी भारी लोकप्रियता का प्रमाण था. डॉ. संपूर्णानंद दैनिक ‘आज’ के संपादक और विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भी रह चुके थे.  FIRST PUBLISHED : October 23, 2024, 17:51 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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