दास्तान-गो : विष्णु दिगंबर पलुस्कर उन्हें दिखता नहीं था पर नज़र बड़ी तेज थी
दास्तान-गो : विष्णु दिगंबर पलुस्कर उन्हें दिखता नहीं था पर नज़र बड़ी तेज थी
Daastaan-Go : Vishnu Digambar Paluskar Birth Anniversary : कहते हैं कि उस कार्यक्रम के बाद रानी ने उनके सामने पेशकश की कि विष्णु जी दरबारी-गायक बन जाएं. उसके लिए रानी ने 400 रुपए महीना तनख़्वाह देने का भी वादा किया. लेकिन विष्णु जी ने बड़ी विनम्रता से रानी की इस पेशकश को मंज़ूर करने से मना कर दिया. क्योंकि, जैसा कि पहले ही कहा जनाब, उनकी नज़र बड़ी तेज थी और दूर की भी. वे बड़ा ख़्वाब देख चुके थे कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय-संगीत को उसकी खोई इज़्ज़त वापस दिलानी है. उसका रुतबा लौटाना है.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, हम सब ऐसा ही जानते हैं कि तेज नज़र होने के लिए आंखों से दिखना ज़रूरी है. लेकिन ये आधी बात है. पूरी यूं है कि आंखों से दिखे बिना भी नज़र तेज हो सकती है. ब-शर्ते कि हमारे ख़्यालों में कोई ख़्वाब हो और उसे पूरा करने के लिए नज़रिया. विष्णु दिगंबर पलुस्कर के पास इसी क़िस्म की तेज नज़र थी. ख़्वाब था. नज़रिया था. उन्होंने ख़्वाब देखा कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को आने वाली पीढ़ी आसानी से सीख सके. समझ सके. पढ़ सके. लिहाज़ा, उन्होंने हिन्दुस्तान को उसका ‘राग-संगीत’ लिखना और पढ़ना (नोटेशंस) दोनों सिखा दिया. उनसे पहले इस तरह का कोई बंदोबस्त नहीं था. उन्होंने संगीत-विद्यालयों के माध्यम से संगीत-शिक्षा की एक व्यवस्थित-पद्धति विकसित कर दी, जो संगीत के लाखों विद्यार्थियों के लिए वरदान बन गई.
ऐसे ही, विष्णु पलुस्कर जी ने ख़्वाब देखा कि हिन्दुस्तान का ‘राग-संगीत’ राजे-रजवाड़ों, बादशाहों के दरबारों और तवायफ़ों के कोठों से बाहर निकले. सीधे जनता-दरबार में पहुंचे. लिहाज़ा, उन्होंने जनता के लिए, उसके सामने शास्त्रीय-संगीत के कार्यक्रमों की मंचीय-प्रस्तुति (स्टेज-परफॉरमेंस) शुरू की. यह ऐसा सिलसिला हुआ कि अब हिन्दुस्तान ही नहीं, पूरे भारतीय-उपमहाद्वीप के लाखों फ़नकारों के लिए रोज़ी-रोटी चलाने का ज़रिया बन गया है. फिर चाहे उनमें कोई बड़े दिग्गज हों या अदना फ़नकार. सब शामिल हैं, विष्णु जी के शुरू किए सिलसिले के लाभार्थियों में. हालांकि विष्णु जी ने जब ये सिलसिला शुरू किया, उस वक़्त हिन्दुस्तान के ‘राग-संगीत’ में बाहरी आक्रांताओं के दख़ल की वज़ह से थोड़ा प्रदूषण आ गया था. ख़ासकर भाषा के लिहाज़ से.
तब विष्णु जी ने उस भाषाई-प्रदूषण को दूर करने का ख़्वाब देखा. उसे भी पूरा किया. हिन्दुस्तानी ‘राग-संगीत’ की बंदिशों की पुनर्रचना की. उनमें भक्ति, प्रेम, विरह आदि के ऐसे शब्दों को पिरोया, जो समाज के सम्मानित दायरे में इज़्ज़त से लिए जाते हैं. जिनके भावों से जुड़कर सुनने वाले उसी भाव में खो जाया करते हैं. आज भी. और यह सब विष्णु जी ने तब किया, जब उनके पास औपचारिक शिक्षा की कोई डिग्री वग़ैरा नहीं थी. क्योंकि आंखों की रोशनी छिन जाने के बाद उनकी स्कूल-कॉलेज की ता’लीम मुमकिन न हो सकी थी. महज़ 13 साल की उम्र (18 अगस्त, 1872 का जन्म) थी, जब यह परेशानी पेश आई. महाराष्ट्र के मिरज में रहते थे विष्णु जी. पिता दिगंबर गोपाल पलुस्कर इलाके में बड़े मशहूर कीर्तनकार थे. मिरज रियासत का संरक्षण था.
विष्णु जी का ख़ानदान सांगली जिले के पलुस गांव से त’अल्लुक़ रखता है. इसीलिए पलुस्कर कहा जाता है. शायद उनके दादे-परदादे मिरज के राजा के बुलावे पर वहां आकर बसे थे. तो जनाब, एक रोज़ विष्णु जी खेल रहे थे. दीपावली या शायद दत्त जयंती का मौका था. हंसी-ख़ुशी का माहौल. पटाख़े फोड़े जा रहे थे. तभी पटाख़ों से निकली चिंगारियां विष्णु जी की आंख में चली गईं. हादसे की ख़बर मिलते ही मां-बाप बेटे को लेकर दौड़े-दौड़े डॉक्टर के पास पहुंचे. मिशनरी अस्पताल. डॉक्टर भदभदे वहां तैनात थे. उन्होंने तुरंत इलाज़ भी शुरू कर दिया. लेकिन चेहरे पर लगे बाहरी घाव वग़ैरा ही ठीक हो पाए. आंखों की रोशनी को जो नुक़सान हुआ, उसकी भरपाई न हो पाई. माता-पिता ग़म-ज़दा थे. बेटे के भविष्य का क्या होगा, उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था.
कि तभी डॉक्टर साहब ने ही मशवरा दिया, ‘दिगंबर जी, आपका बेटा भी बहुत मधुर गाता है. आवाज़ अच्छी है. आप इसे गाना क्यों नहीं सिखवाते?’ दिगंबर जी को डॉक्टर साहब का मशवरा जंच गया और उन्होंने उसी इलाके में मौज़ूद बालकृष्णबुवा इचलकरंजीकर के संगीत-गुरुकुल में विष्णु जी का दाख़िला करा दिया. इचलकरंजीकर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय-संगीत के ग्वालियर-घराने के बड़े गायक थे. घर पर ही गुरुकुल-पद्धति से संगीत की शिक्षा दिया करते थे. तो, इस तरह विष्णु जी की संगीत शिक्षा शुरू हो गई, जो नौ साल तक चली. बताते हैं, इस दौर में विष्णु जी ने वह सब किया, जिसके बारे में लोग सिर्फ़ किस्से-कहानियों में सुना करते हैं. मसलन- गुरु जी की सेवा, उनके घर के छोटे-बड़े काम. इसके बाद जब गुरुजी सिखाएं तो सीखना. फिर रियाज़.
और रियाज़ भी कैसी जनाब. इतने सारे कामों के बाद दिन में अक़्सर वक़्त नहीं बचता था तो देर रात तक. इस समय थकान की वज़ह से नींद आने लगती थी, तो कहते हैं, विष्णु जी सच में, अपनी चोटी (शिखा) को खूंटी से बांध लेते थे. ताकि नींद का झोंका आने पर सिर इधर-उधर लुढ़के, तो चोटी खिंचने से वे चैतन्य हो जाएं और रियाज़, साधना जारी रख सकें. सो, ज़ाहिर तौर पर इस साधना के फल भी जल्द नज़र आने लगे. इसमें किसी को अचरज न हुआ. बल्कि गुरुजी ने उन्हें बाहर जाकर अपनी कला के प्रदर्शन की इजाज़त ही दे दी. लिहाज़ा, छोटी जगहों से सिलसिला शुरू हुआ और फिर विष्णु जी का बड़ा कार्यक्रम उस ज़माने की मशहूर बड़ौदा रियासत के दरबार में हुआ. जमना बाई रानी थीं, वहां की. उन पर बड़ा असर हुआ, विष्णु जी के गाने का.
कहते हैं कि उस कार्यक्रम के बाद रानी ने उनके सामने पेशकश की कि विष्णु जी दरबारी-गायक बन जाएं. उसके लिए रानी ने 400 रुपए महीना तनख़्वाह देने का भी वादा किया. लेकिन विष्णु जी ने बड़ी विनम्रता से रानी की इस पेशकश को मंज़ूर करने से मना कर दिया. क्योंकि, जैसा कि पहले ही कहा जनाब, उनकी नज़र बड़ी तेज थी और दूर की भी. वे बड़ा ख़्वाब देख चुके थे कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय-संगीत को उसकी खोई इज़्ज़त वापस दिलानी है. उसका रुतबा लौटाना है. और वे यह भी समझ चुके थे कि उनका मक़सद तभी हासिल हो सकता है कि जब आम आदमी संगीत की शास्त्रीयता से, रागदारी से जुड़े. लिहाज़ा, उन्होंने हिन्दुस्तान की अलग-अलग जगहों पर जाकर सीधे लोगों के सामने अपनी गायकी का प्रदर्शन करने का फ़ैसला किया.
बड़ा जोख़िम था इसमें. क्योंकि लोग तो तब गाने-बजाने वालों को देखकर ही मुंह मोड़ लिया करते थे. शायद इसलिए क्योंकि गाने-बजाने का माध्यम बन रहीं बंदिशों (कवित्त) की भाषा में बाहरी तत्त्वों के असर से असहज, अस्वीकृत शब्द शुमार हो गए थे. चलन में आ चुके थे. विष्णु जी को इसका जल्द ही एहसास हो गया और उन्होंने सबसे पहले इसी पर काम किया. उन्होंने भक्ति-पदों को बंदिशों की तरह गाना शुरू किया. सहयोगियों की मदद से अच्छी भाषा, शब्दावली वाली बंदिशें बनाईं और तानपूरा लेकर निकल पड़े हिन्दुस्तान की मुख़्तलिफ़ जगहों की ख़ाक छानने. भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन से बनी डॉक्यूमेंट्री बताती है कि इस बीच विष्णु जी की मुलाक़ात एक साधु से हुई. उन्होंने विष्णु जी का उद्देश्य जानकर उन्हें उत्तर दिशा में जाने को कहा.
इस तरह, ग्वालियर, मथुरा, भरतपुर, दिल्ली, अमृतसर, लाहौर, रावलपिंडी, मोंटगोमरी, मुल्तान, जम्मू, श्रीनगर, ओकरा, जलंधर तक पहुंचे. वहां अपने कार्यक्रम दिए. अब तक साल 1898 का आ चुका था. इन यात्राओं के शुरू में तो विष्णु जी को आम लोगों से अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं मिली लेकिन धीरे-धीरे उनकी ख़्याति प्रतिष्ठित शास्त्रीय गायक की तरह हो गई. लोग उनके इस अलहदा तज़रबे को भी मान्यता देने लगे. उसकी तारीफ़ करने लगे थे. विष्णु जी को राजे-रजवाड़ों, बादशाहों-नवाबों से अब भी पेशकशें मिल रही थीं कि वे उनके दरबार की शान बढ़ाएं. लेकिन उन्होंने किसी पेशकश को मंज़ूर नहीं किया. क्योंकि उन्हें तो हिन्दुस्तानी संगीत की शान बढ़ानी थी. उसमें चार चांद लगाने थे. उनके ख़्वाब के अगले पड़ावों में अभी और भी बहुत-कुछ बाकी था.
और जनाब, इनमें से एक पड़ाव पेश आया, जब वे दोबारा लाहौर जाकर ठहरे. यहां उन्होंने एक और बड़ा फ़ैसला किया, संगीत-विद्यालय की स्थापना का. ऐसा, जहां एक निश्चित फीस लेकर आम बच्चों को संगीत की वैसी शिक्षा दी जाए, जिस तरह स्कूल-कॉलेजों में अन्य अकादमिक विषयों की दी जाती है. मंसूबा बांधा तो उन्हें माली-मदद भी मिली. कुछ महाजन, रसूखदार उन्हें कर्ज़ देने को तैयार हुए और 1901 में गंधर्व महाविद्यालय की स्थापना कर दी. लाहौर में ही. कहते हैं, उन्होंने इसके लिए तीन साल तक लोगों के सामने जा-जाकर झोली फैलाई, तब कहीं उन्हें कर्ज़ मिला था. इस तरह संगीत-विद्यालय शुरू हुआ. लेकिन लंबे वक़्त तक उसमें पढ़ने कोई नहीं आया. उस दौर में विष्णु जी अकेले ही विद्यालय में बैठकर अपनी संगीत-साधना करते थे.
हालांकि धीरे-धीरे माहौल बना और विद्यालय में लड़के-लड़कियों ने दाख़िला लेना शुरू किया. लेकिन यहां और भी समस्याएं. मसलन, विद्यालय की फीस 101 रुपए हुआ करती थी. कई लड़के-लड़कियां ग़रीब घरों के होते थे. वे फीस देने में सक्षम नहीं थे. इसके अलावा लड़कों के साथ लड़कियों को सीखने में भी कुछ दिक़्कत होती थी. विष्णु जी ने इन समस्याओं का रास्ता निकाला और ग़रीब बच्चों को फीस में छूट देने का बंदोबस्त किया. लड़कियों के लिए भी अलग इंतज़ाम किए. अब तक उन्होंने संगीत से संबंधित क़िताबें लिखनी (कुल 50 किताबें लिखीं) शुरू कर दी थीं. लिहाज़ा, लड़कियों के लिए भी अलग क़िताब लिख डाली. इसे ‘महिला-संगीत’ नाम दिया उन्होंने. इस सबके साथ उन्होंने अपने संगीत-विद्यालय के लिए सख़्त नियम भी तय किए थे.
मिसाल के तौर पर इतनी मेहनत मशक़्क़त के बावजूद अगर कोई संगीत-विद्यार्थी बीच में पढ़ाई छोड़कर जाता, तो उससे पूरी फीस के साथ आर्थिक-दंड भी वसूल किया जाता था. हालांकि यह सब इसलिए था कि कोई भी संगीत की शिक्षा हल्के में न ले. सिर्फ़ गंभीर रूप से सीखने और आगे बढ़ने की इच्छा रखने वाले ही उस विद्यालय में दाख़िला लिया करें. तो जनाब, लाहौर में क़रीब छह-सात साल तक यह पूरा मामला जमाया, विष्णु जी ने. इसके बाद गंधर्व महाविद्यालय की अगली शाख़ उन्होंने खोली बंबई में. साल 1908 का था. यहां उन्हें लाहौर के मुकाबले ज़्यादा समर्थन मिला. कारण कि एक तो महाराष्ट्र में विष्णु दिगंबर पलुस्कर का नाम पहले से स्थापित था. दूसरा संगीत को लेकर अभिरुचि भी महाराष्ट्र में तुलनात्मक रूप से ज़्यादा थी. इससे उत्साहित विष्णु जी ने लगातार संगीत प्रस्तुतियों तथा कुछ कर्ज़दाताओं की मदद से धन जुटाया और बंबई में गंधर्व-महाविद्यालय की अपनी इमारत भी ता’मीर हो गई.
हालांकि जनाब, होनी को कुछ और भी मंज़ूर था अभी विष्णु जी की जानिब से. उसकी चर्चा करेंगे. लेकिन दास्तान के अगले हिस्से में. ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना होगा. बस, दो दिन. आने वाली 21 अगस्त को विष्णु जी की पुण्यतिथि है. उनका कुछ ज़िक्र तब के लिए छोड़ देते हैं.
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अगली कड़ी में पढ़िए (21 अगस्त को)
दास्तान-गो : रघुपति राघव राजा राम… विष्णु दिगंबर इनका नाम
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Tags: Birth anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : August 18, 2022, 16:27 IST