दास्तान-गो : मैं पल दो पल का शा’इर हूं… ग़लत कहा न साहिर (लुधियानवी) साहब ने

Daastaan-Go ; Sahir Ludhiyanvi Death Anniversary : तरक़्क़ी-पसंद लोगों में शुमार होते थे वे. इस नाते न ईश्वर को मानते थे, न अल्लाह को. लेकिन कमाल देखिए कि हिन्दुस्तान के लबों पर आज जो चुनिंदा भजन पाए जाते हैं, वे साहिर के ख़्याल से शुरुआत पाते हैं. मसलन, ‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम. सबको सन्मति दे भगवान’ या फिर ‘तोरा मन दर्पण कहलाए, भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए’.

दास्तान-गो : मैं पल दो पल का शा’इर हूं… ग़लत कहा न साहिर (लुधियानवी) साहब ने
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़… ———– जनाब, वज़ह चाहे जो होती हो, पर कभी-कभार बड़ी शख़्सियतें भी कुछ ग़लत कह जाया करती हैं. बतौर मिसाल, साहिर लुधियानवी साहब हैं. वे लिखते हैं एक जगह, ‘मैं पल दो पल का शा’इर हूं, पल दो पल मेरी कहानी है. पल दो पल मेरी हस्ती है…’ पर उनका ये लिखा ग़लत ही है न? क्योंकि अगर ये सच होता तो आज उनके इंतिक़ाल के 42 बरस बाद भी लोग उन्हें याद क्यूं कर रहे होते? आज ही की तारीख़ में, 25 अक्टूबर 1980 को, उन्होंने इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कहा था. मगर इतना वक़्त बीतने पर भी साहिर भुलाए नहीं भूलते. लोगों को उनकी ‘तलख़ियां’ याद आती हैं. उनकी ‘परछाईयां’ पीछा करती हैं. वैसे, इन दो नामों से ही उनकी लिखी किताबें भी हैं. लोग जब-तब उनके सफ़्हात (पन्ने) पलट लिया करते हैं. अपनी आंखें नम कर लिया करते हैं. कुछ हौसला पा लिया करते हैं. थोड़े सबक दिल-ओ-दिमाग़ में उतारकर उनको याद कर लिया करते हैं. ‘साहिर’… मतलब ‘जादूगर’. हर साल जब आठ मार्च की तारीख़ आती है न, तो लोग ‘महिला दिवस’ के साथ हमेशा औरतों के हक़ की बात करने वाले इस ‘जादूगर’ को ज़रूर याद करते हैं. इसी तारीख़ की तो पैदाइश भी थी, साल 1921 की, साहिर साहब की, जो औरतों के दर्द को लफ़्ज़ देते हैं, ‘औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया. जब जी चाहा मसला कुचला, जब चाहा दुत्कार दिया’. यही ‘साहिर’ समाज के ठेकेदारों को लताड़ते भी हैं. अपनी नज़्म ‘चकले’ (वेश्यालय) में वे एक जगह लिखते हैं, ‘ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के. ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के. कहां हैं, कहां हैं मुहाफ़िज़ ख़ुदी के’. फिर यही ‘साहिर’ औरतों को ख़ुद अपना सर उठाने की नसीहत भी देते हैं, ‘पोंछ के अश्क़ अपनी आंखों के, मुस्कुराओ तो कोई बात बने. सर झुकाने से कुछ नहीं होगा, सर उठाओ तो कोई बात बने’. या फिर ‘न मुंह छुपा के जियो और न सर झुका के जिओ’. यही साहिर बचपने में मां-बाप से मिले नाम अब्दुल हई की हैसियत से रईस ख़ानदान के ‘अपने’ वालिद फ़जल मोहम्मद को अम्मी के साथ मार-पीट करते हुए देखते हैं. फिर मां सरदार बेगम को घर छोड़ते हुए और औलाद पालने में पेश आने वाली मुश्किलें उठाते देखते हैं. सो, थोड़े बड़े होने के बाद जब ‘साहिर’ का तख़ल्लुस (उपनाम या पहचान) अपनाते हैं तो मां के संघर्ष, उसके जज़्बातों को लफ़्ज़ देते हैं, ‘तू मेरे साथ रहेगा मुन्ना…’ फिर आगे इसी में लिखते हैं, ‘मैं तुझे रहम के साए में न पलने दूंगी, ज़िंदगानी की कड़ी धूप में जलने दूंगी. ताकि तप तप के तू फौलाद बने, मां की औलाद बने, मां की औलाद बने’. और फिर अस्ल ज़िंदगी हमेशा, शिद्दत से वह ‘मां की औलाद’ ही बने रहते हैं. उनकी ज़िंदगी पर किताब आई थी साल 2013 में, ‘साहिर लुधियानवी : द पीपुल्स पोएट’. उसमें लिखा है, ‘साहिर ने ज़िंदगी में बस एक ही बार प्यार किया… अपनी मां से’. हालांकि, ऐसा नहीं है कि साहिर ने किसी और से मोहब्बत नहीं की. मगर किस तरह की वह देखिए. इसी किताब में दर्ज़ है कहीं, साहिर और अमृता प्रीतम की मोहब्बत का क़िस्सा भी. अमृता के हवाले से लिखा है, ‘एक रोज़ साहिर ने मुझे बताया था कि जब हम दोनों लाहौर में थे तो वह अक्सर, मेरा घर जिस गली में था, उसके नुक्कड़ पर आकर खड़े हो जाया करता था. कभी पान ख़रीदता तो कभी सिगरेट. और कभी हाथ में सोडे का गिलास थामे घंटों वहीं खड़े होकर मेरे घर की खिड़की तरफ़ टकटकी बांधे रहता था’. और अपनी मोहब्बत को साहिर जब ‘औरत’ पर ज़ाहिर करते हैं तो किस तरह वह भी देखिए, ‘प्यार पे बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी, तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं’. इसी तरह, एक ग़ज़ल का मुखड़ा देते हैं, ‘हज़ार ख़्वाब हक़ीक़त का रूप ले लेंगे, मगर ये शर्त है कि तुम मुस्करा के हां कह दो’. मतलब ‘औरत’ की रज़ामंदी का दर्ज़ा सबसे अव्वल. इस तरह साहिर औरत को मान देते हैं. उससे मोहब्बत करते हैं. पर शादी नहीं करते. क्यों? इस पर एक दूसरी किताब रोशनी डालती है. नाम है, ‘साहिर : ए लिटररी पोट्रेट’. इसमें लिखा है एक जगह, ‘लाहौर में साहिर और अमृता की जान-पहचान हुई. उस वक़्त अमृता एक रईस आदमी की बीवी थीं. आराम-तलब ज़िंदगी जी रही थीं. जबकि साहिर के दिन मुफ़्लिसी में बीता करते थे तब. फिर बाद में जब वह बंबई आए और अच्छे पैसे कमा लिए, तब भी उन्हें डर रहा शायद. डर इस बात का कि कोई और औरत अगर उनकी ज़िंदगी में आई तो उसकी वज़ह से मां के साथ उनका रिश्ता न बिगड़ जाए कहीं’. हालांकि, उनकी ज़िंदगी के बारे में लिखी गईं इन दो किताबों में से पहली वाली में कहीं ये भी दर्ज़ है कि एक बार साहिर ने मां से कहा था, ‘वो अमृत प्रीतम थी. वो आपकी बहू बन सकती थी’. पर नहीं हो पाया. मां से उनकी मोहब्बत न बंटे, इसलिए साहिर बंटते रहे फिर. इसके बाद, अमृता जब इमरोज़ के साथ रहने लगीं तो साहिर शिक़वा भी किस तरह से करते हैं देखिए, ‘महफ़िल से उठ जाने वालो, तुम लोगों पे क्या इल्ज़ाम. तुम आबाद घरों के वासी, मैं आवारा और बदनाम’. साहिर को शिक़वा ‘शहंशाहों’ से भी है. इसका वे खुलकर जब-तब इज़हार भी किया करते हैं. अपनी किताब ‘तलख़ियां’ में वह लिखते हैं, ‘एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर, हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक’. साहिर की यह बेबाकी कई मर्तबा ‘शहंशाहों’ और ‘सरकारों’ को नाराज़ भी करती है. इससे उनके सामने हालात यूं पैदा कर दिए जाते हैं कि उन्हें जून की गर्म दोपहर में भारी लबादा ओढ़कर, हैट पहनकर एक मुल्क (पाकिस्तान) छोड़कर मादरे-वतन (हिन्दुस्तान) लौटना पड़ता है. साल 1948 का वाक़ि’आ बताया जाता है ये. और वज़ह यूं कही जाती है कि पड़ोसी मुल्क की सरकार ने उन्हें ‘ख़तरनाक शख़्सियत’ मान लिया. अलबत्ता, ‘ख़तरनाक’ तो नहीं मालूम पर ‘तुनकमिज़ाज़’ उन्हें उनके जानने वालों ने भी माना है. इसी चक्कर में जिन एसडी बर्मन की ‘नौजवान’ फिल्म से साहिर फिल्मों में नग़्मा-निगार की हैसियत से पहचान पाते हैं, उन्हीं के साथ आगे चलकर ‘अबोला’ हो जाता है. दोनों एक-दूसरे साथ काम नहीं करते फिर. सुर-संगीत पर राज करने वाली लता मंगेशकर से जुड़ा भी एक मसला कहा-सुना जाता है कि साहिर हमेशा उनसे एक रुपया ज़्यादा मेहनताना लिया करते थे. क्योंकि वे ‘अपनी लिखाई’ को लता जी की गायकी के ऊपर ही देखना पसंद करते थे. ऐसी और भी तमाम बातें हैं. हालांकि इन्हीं के साथ-साथ उनकी मददग़ारी, उनकी दोस्ती के किस्से भी हैं. मसलन, उनके दोस्त अमरनाथ वर्मा ने एक दफ़ा याद किया, ‘मैं एक बार बंबई गया. साहिर भाई से कहा कि मुझे कुछ अच्छे लेखकों से मिलवा दें. तो वह ख़ुद मुझे कृष्ण चंदर और राजिंदर सिंह बेदी के पास ले गए’. आगे साहिर की शख़्सियत से जुड़ा विरोधाभास एक और. जैसा कि पहले ही बताया कि तरक़्क़ी-पसंद लोगों में शुमार होते थे वे. इस नाते न ईश्वर को मानते थे, न अल्लाह को. लेकिन कमाल देखिए कि हिन्दुस्तान के लबों पर आज जो चुनिंदा भजन पाए जाते हैं, वे साहिर के ख़्याल से शुरुआत पाते हैं. मसलन, ‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम. सबको सन्मति दे भगवान’ या फिर ‘तोरा मन दर्पण कहलाए, भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए’. साहिर की शख़्सियत से जुड़े ये मुख़्तलिफ़ रंग ही हैं यक़ीनन, कि उन पर किताबें लिखने वाले उन्हें ‘रहस्य का लिहाफ़ ओढ़ी हुई पहेली’ बता देते हैं. और कभी ‘ऐसी ज़िंदगी का मालिक, जिसमें नाटकीयता के तमाम तत्त्व हैं’. लेकिन साहिर को इस सब से फ़र्क नहीं पड़ता. ज़िंदगी रहने तक वे पूरी शिद्दत से ज़िंदगी का साथ निभाते हैं. लिखते भी हैं, ‘मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया… ग़म और ख़ुशी में फ़र्क न महसूस हो जहां, मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया’. ये साहिर हैं. लफ़्ज़ों के जादूगर. इसीलिए ख़ुद के लिए उनका यह लिखना ठीक नहीं लगता कि ‘मैं पल दो पल का शा’इर हूं…’ आज के बस इतना ही, ख़ुदा हाफ़िज़. ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी| आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी| Tags: Death anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : October 25, 2022, 08:18 IST