कौन थे गांधीजी के समधी जिनके बगैर सेंगोल को सदियों पहले ही भुलाया जा चुका था
कौन थे गांधीजी के समधी जिनके बगैर सेंगोल को सदियों पहले ही भुलाया जा चुका था
गांधीजी का सबसे छोटा बेटा इस नेता की बेटी के साथ ब्याहा था. वैसे वो हमेशा गांधीजी को अपना मार्गदर्शक मानते थे. उन्हें बहुत बड़ा विद्वान माना जाता था. हम नए संसद भवन में जो सेंगोल देख रहे हैं, वो दरअसल 76 साल पहले उन्हीं नेता के दिमाग की उपज थी.
हाइलाइट्स उन्हें भारत का सबसे ज्ञानी सदस्य भी कहा जाता रहा था वह गांधीजी के बेटे से अपनी बेटी की शादी नहीं करना चाहते थे लेकिन फिर क्यों की नेहरू के पहले वो अच्छे दोस्त थे फिर बहुत तगड़े सियासी दुश्मन हो गए
सेंगोल फिर से चर्चा में है. इसे लेकर विपक्ष का कहना है कि ये लोकतंत्र की बजाए राजशाही का प्रतीक ज्यादा है लेकिन ये प्रतीक दरअसल 76 साल पहले उस नेता की दिमाग की उपज माना जाता है, जब अंग्रेज आजादी के समय सत्ता को भारत के हाथों हस्तांतरित करने वाले थे. इस नेता की बुद्धिमानी और तार्किकता के आगे आगे बड़े बड़े नतमस्तक हो जाते थे. उनकी बेटी से गांधीजी के सबसे छोटे बेटे ने लव मैरिज की थी. पहले तो वह नेहरू के बहुत अच्छे मित्र थे. बाद में उनके सबसे बड़े आलोचक बनकर उभरे.
वैसे ये बात सौ फीसदी सही है कि सेंगोल बेशक अब नए संसद भवन के लोकसभा कक्ष में स्थापित हो और इसका इस्तेमाल विशेष अवसरों पर किया जाने वाला हो लेकिन हर कोई इसके बारे सैकड़ों साल पहले ही भूल चुका था. इसे खास प्रतीक को अतीत से निकालने और प्रतिस्थापित करने वाले शख्स भी वही थे. जिन्होंने आजादी के समय नेहरू और आखिरी वायसराय माउंटबेटन को राय दी कि जब ब्रिटेन 14 अगस्त 1947 को सत्ता का हस्तातंरण करे तब उस परिपाटी में प्रतीक के तौर पर सेंगोल को ही एक हाथ से दूसरे हाथों में दिया जाए.
सैकड़ों साल पहले दक्षिण भारत के चोल राजा सत्ता के हस्तातंरण के समय सेंगोल को एक से दूसरे हाथ में देते थे. इस नेता का नाम था सी राजगोपालाचारी. यकीनन अगर वह नहीं होते तो भारतीय संस्कृति के प्रतीक के तौर पर 76 साल पहले आजादी के समय और अब सेंगोल का इस्तेमाल भी नहीं हो रहा होता.
जानते हैं कौन थे सी राजगोपालाचारी, जिनके घोर प्रशंसक महात्मा गांधी भी थे और नेहरू भी लेकिन वह खुद अपने विवेक की सुनते थे. इसी वजह से कभी गांधीजी के खिलाफ खड़े हो गए तो नेहरू को भी चुनौती देने से बाज नहीं आए. उनकी बातों को नजरंदाज कर पाना किसी के लिए भी मुश्किल था. जानते हैं उनके बारे में. वह बाद में महात्मा गांधी के समधी बने. महात्मा गांधी के सबसे छोटे बेटे देवदास ने उनकी बेटी से प्यार किया. हालांकि दोनों पक्ष के पिता इस शादी से नानुकर रहे थे लेकिन फिर ये शादी करनी पड़ी.
सी. राजगोपालाचारी 10 दिसंबर 1972 को तमिलनाडु के कृष्णागिरी जिले में पैदा हुए थे.वह आजाद भारत के पहले भारतीय गर्वनर जनरल थे. नेहरू उन्हें पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे लेकिन ऐसा हो नहीं सका. उन्हें आधुनिक भारतीय इतिहास का चाणक्य भी माना जाता है. एक जमाने में वह बहुत बड़े वकील थे. उन्हें राजनीति में लाने का श्रेय गांधीजी को जाता है.
वह गांधीजी के रिश्तेदार कैसे बने, इसका किस्सा भी दिलचस्प है. नेहरू से उनकी दोस्ती भी रही और फिर सियासी अदावत भी. उन्होंने नई पार्टी बनाकर नेहरू के खिलाफ ही ताल ठोंकी. चुनाव लड़ा. पार्टी को ताकत बनाया. हालांकि कुछ ही सालों में उनकी पार्टी जिस ताकत से उभरी, उसी तरह गायब भी हो गई.
गांधीजी उनको राजनीति में लाए
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (Chakravarti Rajagopalachari) को आमतौर पर राजाजी के नाम से ज्यादा जाना जाता है. वो वकील, लेखक, राजनीतिज्ञ और दार्शनिक थे.उनके पिता तमिलनाडु के सेलम के न्यायालय में न्यायाधीश थे. राजाजी पढ़ने में जीनियस थे. लगातार प्रथम श्रेणी पास होते थे.राजाजी के राजनीति में आने की वजह गांधी ही बने. गांधी के असहयोग आंदोलन का उन पर इतना असर हुआ कि उन्होंने अपनी जमी-जमाई वकालत छोड़ दी और खादी पहनने लगे. सोने के 05 फीट लंबे सैंगोल को आजादी के समय राजदंड के तौर पर सत्ता हस्तांतरण के भारतीय प्रतीक की तरह इस्तेमाल करने का आइडिया सी राजगोपालाचारी का ही था. इसके बाद चेन्नई के एक ज्वैलर्स ने महीने भर के अंदर इसे बनवाया और दिल्ली पहुंचाया गया.
राजाजी की वकालत की स्थिति ये थी कि वो सेलम में कार खरीदने वाले पहले वकील थे. गांधी के छुआछूत आंदोलन और हिंदू-मुस्लिम एकता के कार्यक्रमों ने उन्हें सबसे ज़्यादा प्रभावित किया. 1937 में हुए चुनावों के बाद राजाजी मद्रास के प्रधानमंत्री (तब मुख्यमंत्री के समकक्ष पद) बने. 1939 में जब वायसराय ने एकतरफ़ा निर्णय लेकर भारत को द्वितीय विश्वयुद्ध में धकेल दिया तो उन्होंने विरोध स्वरूप इस्तीफ़ा दे दिया.
तब गांधीजी को सबसे पहले वही याद आते थे
गांधीजी के वो बहुत करीब थे. अक्सर उन्हें जब गंभीर मामलों पर कोई सलाह लेनी होती थी तो अक्सर राजाजी ही याद आते थे. दोनों की अंतरंगता इतनी बढ़ी कि राजाजी ने अपनी बेटी को गांधीजी के आश्रम में रहने के लिए भेजा. राजाजी की बेटी लक्ष्मी जब वर्धा के आश्रम में रह रही थीं तभी उनके और गांधीजी के छोटे बेटे देवदास के बीच प्यार हो गया.
कैसे फिर गांधी के समधी बने
देवदास तब 28 साल के थे और लक्ष्मी 15 की. तब ना तो गांधीजी इस शादी के पक्ष में थे और ना ही राजाजी. शायद अलग अलग जातियों का होने के कारण दोनों उस समय इसके लिए तैयार नहीं थे. उन्होंने देवदास के साथ एक बहुत कठिन शर्त रखी कि वो 05 साल तक लक्ष्मी से अलग रहें. अगर तब भी दोनों का एक दूसरे के प्रति प्यार कायम रहेगा तो शादी कर दी जाएगी. ऐसा ही हुआ. फिर दोनों की शादी हो गई. इस तरह राजाजी और गांधीजी आपस में समधी बन गए.
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कई बार गांधीजी और कांग्रेस से मतभेद भी
कांग्रेस के साथ आने के बाद राजाजी ने उसके आंदोलनों में जोरशोर से शिरकत करना शुरू किया. जल्द ही वो देश की राजनीति और कांग्रेस में शीर्ष नेताओं में शामिल हो गए. गांधीजी बेशक उनसे राय लेते थे लेकिन कई बार दोनों में मतभेद की स्थितियां भी बनीं. कई बार वो खुले तौर पर कांग्रेस के विरोध में भी खड़े मिलते थे. लेकिन ये तय था कि वो कोई भी काम अकारण नहीं करते थे. सी. राजगोपालाचारी ने अपनी छोटी बेटी की शादी गांधीजी के सबसे छोटे बेटे देवदास से की. हालांकि ये उस समय अंतरजातीय विवाह के तौर पर काफी क्रांतिकारी भी माना गया.
फिर वह गांधीजी के ही विरोध में खड़े हो गए
वह गांधीजी के कितने करीब थे, इसका पता इस बात से चलता है कि जब भी गांधीजी जेल में होते थे, उनके द्वारा संपादित पत्र ‘यंग इंडिया’ का सम्पादन चक्रवर्ती ही करते थे. जब कभी गांधी जी से पूछा जाता था, ‘ जब आप जेल में होते हैं, तब बाहर आपका उत्तराधिकारी किसे समझा जाए?’ तब गांधी जी सहज भाव से कहते, ‘राजा जी, और कौन?’ दोनों के सबंधों में तब और भी प्रगाढ़ता आ गयी, जब सन् 1933 में चक्रवर्ती जी की पुत्री और गांधी जी के बेटे देवदास वैवाहिक बंधन में बंधे.
हालांकि दूसरे विश्व युद्ध के शुरू के दौरान उनकी कांग्रेस से ठन गई. वो गांधीजी के विरोध में खड़े थे. गांधीजी का विचार था कि ब्रिटिश सरकार को इस युद्ध में केवल नैतिक समर्थन दिया जाए, वहीं राजा जी का कहना था कि भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देने की शर्त पर ब्रिटिश सरकार को हर प्रकार का सहयोग दिया जाए. मतभेद इतने बढ़े कि राजा जी ने कांग्रेस की कार्यकारिणी की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया.हालांकि फिर कांग्रेस में लौटे.
05 साल पहले ही कह दिया था देश का बंटवारा होगा
वो पहले शख्स थे, जिन्होंने 1942 में इलाहाबाद कांग्रेस अधिवेशन में देश के विभाजन पर सहमति जता दी थी. हालांकि उस समय उनका बहुत विरोध हुआ लेकिन उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की. हालांकि 1947 में वही हुआ, जो वो पांच साल पहले कह चुके थे. ये तमाम वो वजहें थीं कि कांग्रेस के नेता उनकी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता का लोहा मानते थे.
क्यों हो गए थे नेहरू से नाखुश
1946 में देश की अंतरिम सरकार बनी. उन्हें केन्द्र सरकार में उद्योग मंत्री बनाया गया. 1947 में देश के आजाद होने पर वो बंगाल के राज्यपाल बने. अगले ही साल स्वतंत्र भारत के प्रहले ‘गवर्नर जनरल’. जब नेहरू उन्हें देश का पहला राष्ट्रपति नहीं बना सके तो उन्हें 1950 में फिर केन्द्रीय मंत्रिमंडल में लिया गया. 1952 के आम चुनावों में वह लोकसभा सदस्य बने और मद्रास के मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए. लेकिन कुछ साल बाद ही नेहरू और कांग्रेस से नाखुश होकर मुख्यमंत्री पद और कांग्रेस दोनों छोड़ दी.
राजाजी को कांग्रेस और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के वामपंथी समाजवाद की तरफ झुकाव को लेकर एतराज था. वो मानते थे कि इससे कांग्रेस को इसका नुकसान होगा. इसी मतभेद के चलते उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर नई राष्ट्रवादी पार्टी का गठन करने का विचार किया. 4 जून 1959 को स्वतंत्र पार्टी गठित हुई.
उन्होंने पहली बार देश में मजबूत विपक्ष दिया
राजाजी ने अलग पार्टी बनाने की घोषणा की. इस पार्टी का नाम था स्वतंत्र पार्टी. 61 साल पहले बनी इस पार्टी ने मज़बूत विपक्ष की भी भूमिका निभाई. उन्होंने एनजी रंगा और मीनू मसानी जैसे दिग्गजों के साथ इस पार्टी की स्थापना की. हालांकि ये जिस रफ्तार से उभरी थी, उसके बाद केवल 15 सालों में उसी तेज़ झटके के साथ खत्म भी हो गई. हालांकि शुरू में नेहरू और राजाजी कांग्रेस में साथ होने पर भी बहुत करीब नहीं थे लेकिन नेहरू उनसे प्रभावित थे. 1946 में दोनों ज्यादा करीब होकर काम करने लगे. नेहरू जी के साथ उन्होंने कई स्थितियों में काम किया लेकिन बाद में उनकी नीतियों को लेकर उनमें मतभेद हुआ. उन्होंने अलग होकर नई पार्टी बना ली.
तब इस पार्टी ने 44 लोकसभा सीटें जीतीं
1959 में पार्टी के गठन के बाद पहला चुनाव 1962 का था. इस चुनाव में नई बनी स्वतंत्र पार्टी ने 18 लोकसभा सीटें जीतीं. बिहार, राजस्थान, गुजरात और उड़ीसा में कांग्रेस के मुकाबले स्वतंत्र पार्टी मुख्य विपक्ष के तौर पर उभरी. इसके बाद 1967 के चुनाव में स्वतंत्र पार्टी और कामयाब हुई क्योंकि 44 लोकसभा सीटें जीती. इस दौरान कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस पार्टी को माना जाने लगा था, लेकिन अगले चुनाव में पार्टी अपना अस्तित्व भी नहीं बचा पाई.
फिर कैसे खत्म हो गया ये सियासी दल
1971 के चुनाव में स्वतंत्र पार्टी को सिर्फ 8 सीटें हाथ लगीं तो सबका दिल टूट गया. मसानी ने इस्तीफा दे दिया और राजाजी व स्वतंत्र पार्टी की कई कोशिशों के बाद भी वह वापस नहीं आए बल्कि कुछ ही समय में उन्होंने सक्रिय राजनीति से भी संन्यास ले लिया. 25 दिसंबर 1972 को राजाजी के निधन के साथ ही स्वतंत्र पार्टी का भी खात्मा हो गया था लेकिन अगले दो सालों में तीन अध्यक्षों के साथ यह पार्टी और ज़िंदा रही.
गुहा ने उन्हें भारत का सबसे ज्ञानी पुरुष बताया
रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब “द लास्ट लिबरल” में राजाजी को भारत का सबसे ज्ञानी पुरुष बताया. गांधीजी उन्हें अपने विवेक का रखवाला कहते थे. गुहा लिखते हैं कि अगर 1942 में विभाजन को लेकर उनकी बात सुनी जाती तो हम शायद बंटवारे से उपजे खून-खराबे से बच जाते. नेहरू मंत्रिमंडल में बतौर गृहमंत्री उन्होंने 1951 में ही कम्युनिस्ट चीन के विस्तारवादी मंसूबों को लेकर उन्हें आगाह किया था. कहा जाता है कि उन्हें तमाम बातों का पूर्वज्ञान हो जाता था.
Tags: 18th Lok Sabha, Jawaharlal Nehru, Mahatma gandhiFIRST PUBLISHED : June 27, 2024, 16:31 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed