क्यों मनाया जाता है मुहर्रम शिया मुस्लिम क्यों मनाते हैं इसमें मातम
क्यों मनाया जाता है मुहर्रम शिया मुस्लिम क्यों मनाते हैं इसमें मातम
मौलाना गुलाम रज़ा ने बताया कि 61 वीं हिज़री तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी. इस जंग में इंसान के लिए और जुर्म के खिलाफ लड़ाई लड़ी गई. इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को शहीद कर दिया गया था.
वसीम अहमद /अलीगढ़: मुहर्रम से ही इस्लामिक नए साल कि शुरुआत होती है. चांद दिखने पर 10 दिवसीय मोहर्रम (मुहर्रम) की शुरुआत होती है. शिया समुदाय के मुस्लिम मुहर्रम को गम के रूप में मनाते हैं. इस दिन इमाम हुसैन और उनके अनुयायियों की शहादत को याद किया जाता है. मुहर्रम पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों के शहादत की याद में मनाया जाता है.
मुहर्रम का इतिहास
जानकारी देते हुए मौलाना गुलाम रज़ा ने बताया कि 61 वीं हिज़री तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी. इस जंग में इंसान के लिए और जुर्म के खिलाफ लड़ाई लड़ी गई. इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को शहीद कर दिया गया था. मुआविया नाम के शासक के निधन के बाद उनका राजपाट उनके बेटे यजीद को मिला. यजीद इस्लाम धर्म का खलीफा बनकर बैठ गया था. वह अपने वर्चस्व को पूरे अरब में फैलाना चाहता था, लेकिन उसके सामने पैगंबर मुहम्मद के खानदान का इकलौता चिराग इमाम हुसैन बड़ी चुनौती था. कर्बला में सन् 61 हिजरी से यजीद ने अत्याचार बढ़ा दिया तो बादशाह इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे, लेकिन रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान पर इमाम हुसैन के काफिले को रोक लिया.
गुलाम रज़ा कहते हैँ कि वह मुहर्रम का दिन था, जब हुसैन का काफिला कर्बला में ठहरा. वहां पानी का एकमात्र स्रोत फरात नदी थी, जिस पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी पीने पर रोक लगा दी. इसके बाद भी इमाम हुसैन झुके नहीं. आखिर में जंग ही लड़नी पड़ी. इतिहास के अनुसार, 80000 की फौज के सामने हुसैन के 72 बहादुरों ने जंग लड़ी.
गुलाम रज़ा ने कहा कि उन्होंने अपने नाना और पिता के सिखाए हुए सदाचार, उच्च विचार, अध्यात्म और अल्लाह से बेपनाह मुहब्बत में प्यास, दर्द, भूख और पीड़ा सब पर विजय प्राप्त की. दसवें मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और अपने साथियों के शवों को दफनाते रहे और आखिर में खुद अकेले युद्ध किया फिर भी दुश्मन उन्हें मार नहीं सका. आखिर में अस्र की नमाज के वक्त जब इमाम हुसैन खुदा का सजदा कर रहे थे, तब एक यजीदी को लगा की शायद यही सही मौका है हुसैन को मारने का. फिर उसने धोखे से हुसैन को शहीद कर दिया, लेकिन इमाम हुसैन तो मर कर भी जिंदा रहे. इस्लाम में उनकी मृत्यु अमर हो गई.
Tags: Hindi news, Local18FIRST PUBLISHED : July 9, 2024, 16:41 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed